पोस्ट पार्टम हेमरेज (PPH) क्या होता है? आइये जानते है कि डॉक्टर अर्चना शर्मा की मौत का PPH से क्या सम्बन्ध है!

कार्ल मार्क्स ने एक बार कहा था कि एक व्यक्ति की आत्महत्या समग्र रूप से समाज की विफलता है। ऐसे देश में इससे ज्यादा उपयुक्त कुछ नहीं हो सकता है, जहां हर सूर्योदय क्रूरता के साथ आता है और हर चंद्रोदय अपने लाखों नागरिकों के लिए अपने सबसे क्रूर रूप में हार देखता है।

राजस्थान के दौसा जिले में एक निजी अस्पताल में एक गर्भवती महिला की कथित तौर पर मौत का कारण बनने वाली डॉक्टर अर्चना शर्मा जो कि एक गायनेकोलॉजिस्ट थीं ने मंगलवार को आत्महत्या कर ली। उनके निधन से देश के मेडिकल और नॉन मेडिकल बिरादरी को गहरा सदमा पहुंचा है।

डिलिवरी के वक्त ज्यादा खून बहने की वजह से एक पेशेंट की मौत के बाद उनके खिलाफ हत्या का केस दर्ज किया गया था। पेशेंट के घरवालों और गांववालों ने अस्पताल के बाहर प्रोटेस्ट किया था, तोड़फोड़ की थी। डॉक्टर अर्चना इसी के चलते परेशान चल रही थीं। डॉक्टर अर्चना के घर से मिले सुसाइड नोट में ये बात लिखी है कि PPH यानी पोस्ट पार्टम हेमरेज एक बहुत मुश्किल परिस्थिति होती है जिसे आज हम जानने की कोशिश करेंगे कि PPH क्या होता है और ऐसे केसेस में पेशेंट्स का बचना कितना मुश्किल होता है। 

PPH क्या है?

डिलीवरी के बाद जेनरली ब्लीडिंग तो होती ही है क्योंकि यूट्रस, प्लेसेंटा को बाहर निकालने के लिए सिकुड़ता है लेकिन कुछ मामलों में यूट्रस सिकुड़ना बंद कर देता है, जिससे ब्लीडिंग होने लगती है। यह प्राइमरी पीपीएच का एक कॉमन कारण है। पर जब प्लेसेंटा के छोटे टुकड़े यूट्रस में जुड़े रह जाते हैं, तो ऐसे में बहुत ज़्यादा ब्लीडिंग हो सकती है।  इसमें ब्लड लॉस इतना ज्यादा होता है कि महिला कई बार शॉक में चली जाती है।

नॉर्मल डिलीवरी के बाद 500 मिली से ज्यादा और सिजेरियन डिलीवरी के बाद करीब 1000 एमएल से ज्यादा ब्लीडिंग हो तो इसे पीपीएच मानते हैं। 

इसे अवॉयड करना सही है या गलत

PPH किसी भी महिला को हो सकता है। इसको अवॉयड करने का कोई भी तरीका सही नहीं होता है। अगर सिज़ेरियन डिलीवरी हुई है या ट्विन डिलीवरी हुई है या बच्चे का साइज़ बड़ा है या महिला को डायबिटीज़ है, अंदर कोई फाइब्रॉएड है या किसी तरह की कोई सर्जरी हुई है तो उन महिलाओं में PPH होने के चांसेस अधिक होते हैं। 

अगर कोई महिला बहुत ज्यादा देर तक लेबर पैन में रही है तब भी PPH होने की संभवना बढ़ जाती है।  

डिलीवरी के दौरान PPH से कैसे बचें ?

डिलीवरी के दौरान PPH की समस्या ना हो इसे लिए डॉक्टर्स ऑक्सीटॉसिन जैसी दवाइयां देना शुरू कर देते हैं,  डिलीवरी के दौरान या कुछ दिन बाद तक अगर PPH नहीं हुआ है तो इसका मतलब ये नहीं है कि ख़तरा टल गया है सेकेंडरी PPH सात दिन से लेकर 12 हफ़्तों तक कभी भी  हो सकता है पर अगर ब्लड लॉस काफी ज्यादा हो रहा है तो कई बार डॉक्टर्स को आई वी फ्लूइड काफी ज्यादा देना पड़ सकता है या कभी-कभी ब्लड चढ़ाने की नौबत भी आ सकती है।

भारत में मैटरनल मोर्टेलिटी के मुख्य कारणों में PPH भी शामिल है। एक शोध के अनुसार  देश में 25% मौतें PPH, 15% इंफेक्शन, 12%  ऑब्स्ट्रक्टेड लेबर, 8% अनसेफ अबॉर्शन के कारण होती हैं। 

हमारे देश में प्रेग्नेंट महिलाओं को पर्याप्त न्यूट्रिशन नहीं मिल पाता है, आयरन की कमी एक बड़ा कंसर्न है।  ऐसे में ज़रूरत है कि मैटरनल हेल्थ से जुड़े इन प्रॉब्लम्स को लेकर लोगों को ज़ागरूक किया जाए।  डॉक्टर को दोषी मानकर उन पर हमले करना, उनकी मेडिकल फेसिलिटी में तोड़फोड़ करना और उन्हें प्रताड़ित करना कभी भी इसका कोई सॉल्यूशन नहीं हो सकता है। 

हमारा  समाज ऐसी समस्या को कैसे हल करता है ? 

भारत में डॉक्टरों को भगवान माना जाता है। इसलिए भारतीय मरीज का गुस्सा भी अनोखा है। 2012 में, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, टी सेतुलक्ष्मी, को एक व्यक्ति ने काट दिया था, जिसकी गर्भवती पत्नी की डिलीवरी के बाद उसकी देखभाल में मृत्यु हो गई थी। हम शायद ही दुनिया में कहीं से ऐसी हत्या का जिक्र कर सकें। इस क्रूरता का एक हिस्सा “भगवान” और “भक्त” के बीच विश्वास के उल्लंघन से उत्पन्न होता है।

यह अनन्य संबंध खतरनाक है। दुर्भाग्य से, अधिकांश डॉक्टर “भगवान” के रूप में पूजे जाने पर आपत्ति नहीं करते हैं। यह उन्हें असंख्य विशेषाधिकार देता है। लेकिन इंसानों के रूप में असफल होने पर यह विशिष्ट प्रभामंडल उन्हें कमजोर बना देता है।

भारतीय समाज में रहने का एक सबसे बड़ा नुक़सान यही है कि यहाँ की जनता कभी भी घटना के पीछे के तथ्य पर ध्यान नहीं देती, और जब बात मेडिकल सिचुएशन की हो तो लोगो को उनकी भाषा में घटना के पीछे का वैज्ञानिक कारण समझाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन सा प्रतीत होता है।  ऐसा नहीं है कि डॉक्टर अर्चना ने मरीज़ के घरवालों को इसका कारण समझाने की कोशिश नहीं की होगी। 

वो अपनी ज़िन्दगी से हार गयी क्योंकि वो लोगों को यह समझाने में विफल रही कि मरीज़ की मौत आखिर हुई कैसे। समाज ऐसे वक्त में बिना तथ्यों को जाने परखे डॉक्टर को ही दोषी ठहराता है जिसके बाद अर्चना शर्मा जैसे ज़िन्दगी से हार जाने के हालात पैदा हो जाते है।  

खैर ऐसी समस्या के लिए हम समाज को भी दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि वो उतना ही जानते है जितना उन्हें बताया गया है ऐसे में शहरी और ग्रामीण स्तर पर प्रॉपर इन सब चीज़ो को जानकारी देना बहुत आवश्यक हो जाता है फिर इसके लिए शिक्षा व्यवस्था सुधारनी पड़े या कोई स्पेशल ट्रेनिंग प्रोग्राम करके लोगों को समझाया जाए ऐसा करने से  लोग ऐसी गलतफहमियों से दूर रह सकेंगे और अर्चना शर्मा जैसे डॉक्टर्स दोषी नहीं ठहराए जायेंगे और उनकी ज़िंदगिया बच जाएगी ।